**** जब विपरित परिश्थितियां आ जाती हैं, तब मानव बुद्धि काम नहीं करती . भ्रम मे पडकर वह अपने ही हित के बारे में सोच पाने में असमर्थ होता है . एेसे में यदि वह अपना ही अहित कर जाय तो आश्चर्य नहीं करना चाहिये .
जब मनुष्य पर बुरा समय पडता है तो वह बुरी तरह उलझ जाता है और अपने ही हाथों से हित को अहित मे बदल देता है.ऐसे मे उसके अपने सगे भी उसका भला नहीं करते, बल्कि अवसर मिलते ही अहित करते हैं .उसे यह भी सुध नहीं होती कि वह खुद ही सन्कटों को अपने पास आने को आमं्त्रित करता है .
उदाहरण के लिये अगर शिकारी अपने बाण से हिरण का वध करता है तो हिरण बचने के लिये भागता हुआ छिप जाता है. किन्तु वह शिकारी को खुद ही बता देता है कि वह कहां छुपा है,क्योंकि उसका बहता हुआ रक्त शिकारी को अपने पास बुला लेता है.
**** जिस प्रकार दूध के फटने पर उसमें से मक्खन नहीं निकल सकता , इसि प्रकार जो बात एक बार बिगड जाती है , वह फिर बन नहीं पाती . चाहे व्यक्ति कितने ही उपाय कर ले .
कोइ भी व्यवहार बहुत सोच -विचारकर करना चाहिये .यदि एक बार बात बिगड जाए तो आसानी से नहीं बनायी जा सकती. शस्त्राघात का घाव भर सकता है, किंतु बात का घाव सरलता से नहीं भरता .अर्थात बात के चुभ जाने से उसकी पीडा कम नहीं की जा सकती .
अतः कोई भी बात कहने से पहले कई बार सोचना चाहिये .एेसी बात नहीं कहनी चाहिये,जिससे किसी को पीडा पहुं्चे
**** पत्थर और मूर्ख की प्र्क्रिति मे कोइ भेद नहीं,दोनों संवेदनहीन और जड होते हैं . पत्थर की ठोकर पांव को रक्तरंजित कर देती है, किंतु पत्थर का कुछ नहीं बिगडता. एेसे ही मूर्ख किसी को ठोकर मारकर रक्तरंजित कर दे और उसे समझाया जाए कि एेसा करना उचित नहीं तो इस बात का उस पर कोई प्रभाव नहीं पडता .लोक-व्यवहार से विपरीत काम करने वाला सर्वथा मूर्ख ही होता है . वह अपनी पीठ आप ही थपथपाता है और दूसरों की हमेशा निंदा करता है .मुश्किल यह है कि सही आचरण की शिक्षा दी जाए तो उसे कुछ समझ नहीं आता.
पत्थर और मूर्ख में कोई अन्तर नहीं समझना चाहिए . यदि पत्थर को पानी में फेंका जाए तो वह तैरता नहीं क्योंकि तैरना उसकी प्र्क्रिति नहीं है. एेसी ही प्र्क्रिति मूर्ख की भी होती है .उसे ग्यान की बातें समझाई जाए तो ध्यान से सुनता है,अच्छी तरह समझता भी है कि उससे जो कुछ भी कहा जा रहा है,वह गलत नहीं है . इसके बावजूद वह ग्यान की बातों का अनुसरण नहीं करता और अपनी डगर पर चलना ही पसन्द करता है.
जब मनुष्य पर बुरा समय पडता है तो वह बुरी तरह उलझ जाता है और अपने ही हाथों से हित को अहित मे बदल देता है.ऐसे मे उसके अपने सगे भी उसका भला नहीं करते, बल्कि अवसर मिलते ही अहित करते हैं .उसे यह भी सुध नहीं होती कि वह खुद ही सन्कटों को अपने पास आने को आमं्त्रित करता है .
उदाहरण के लिये अगर शिकारी अपने बाण से हिरण का वध करता है तो हिरण बचने के लिये भागता हुआ छिप जाता है. किन्तु वह शिकारी को खुद ही बता देता है कि वह कहां छुपा है,क्योंकि उसका बहता हुआ रक्त शिकारी को अपने पास बुला लेता है.
**** जिस प्रकार दूध के फटने पर उसमें से मक्खन नहीं निकल सकता , इसि प्रकार जो बात एक बार बिगड जाती है , वह फिर बन नहीं पाती . चाहे व्यक्ति कितने ही उपाय कर ले .
कोइ भी व्यवहार बहुत सोच -विचारकर करना चाहिये .यदि एक बार बात बिगड जाए तो आसानी से नहीं बनायी जा सकती. शस्त्राघात का घाव भर सकता है, किंतु बात का घाव सरलता से नहीं भरता .अर्थात बात के चुभ जाने से उसकी पीडा कम नहीं की जा सकती .
अतः कोई भी बात कहने से पहले कई बार सोचना चाहिये .एेसी बात नहीं कहनी चाहिये,जिससे किसी को पीडा पहुं्चे
**** पत्थर और मूर्ख की प्र्क्रिति मे कोइ भेद नहीं,दोनों संवेदनहीन और जड होते हैं . पत्थर की ठोकर पांव को रक्तरंजित कर देती है, किंतु पत्थर का कुछ नहीं बिगडता. एेसे ही मूर्ख किसी को ठोकर मारकर रक्तरंजित कर दे और उसे समझाया जाए कि एेसा करना उचित नहीं तो इस बात का उस पर कोई प्रभाव नहीं पडता .लोक-व्यवहार से विपरीत काम करने वाला सर्वथा मूर्ख ही होता है . वह अपनी पीठ आप ही थपथपाता है और दूसरों की हमेशा निंदा करता है .मुश्किल यह है कि सही आचरण की शिक्षा दी जाए तो उसे कुछ समझ नहीं आता.
पत्थर और मूर्ख में कोई अन्तर नहीं समझना चाहिए . यदि पत्थर को पानी में फेंका जाए तो वह तैरता नहीं क्योंकि तैरना उसकी प्र्क्रिति नहीं है. एेसी ही प्र्क्रिति मूर्ख की भी होती है .उसे ग्यान की बातें समझाई जाए तो ध्यान से सुनता है,अच्छी तरह समझता भी है कि उससे जो कुछ भी कहा जा रहा है,वह गलत नहीं है . इसके बावजूद वह ग्यान की बातों का अनुसरण नहीं करता और अपनी डगर पर चलना ही पसन्द करता है.
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